Wednesday, November 24, 2021

#परवीन_शाकिर #जन्मदिन_विशेष ------------------------------------------- "मैं सच कहूँगी फिर भी हार जाऊँगी वो झूठ बोलेगा और लाजवाब कर देगा" *** #परवीन_शाकिर..... पूरी शख़्सियत ऊपर लिखे शेर से ही ज़ाहिर हो जाती है। किस पशोपेश, कितनी ख़लिश और ख़ुलूस में, इश्क़ में, टूटन में ये शेर लिखा होगा जिसे पढ़कर हरेक शख़्स कहने वाले में ख़ुद को ढूँढने लगता है और सुनने वाला अपने आप से राब्ता कायम कर लेता है.....। ** परवीन शाकिर की शख़्सियत हमेशा से लुभाती रही है..... *** "वो तो ख़ुशबू है हवाओं में बिखर जायेगा मसला तो फूल का है फूल किधर जायेगा" *** आज शाकिर साहिबा का जन्मदिन है। जब हम किसी से मोहब्बत करते हैं , इज़्ज़त करते हैं तो हमारी ज़िम्मेदारी बन जाती है कि उस शख़्स की शख़्सियत से भी रूबरू कराया जाये.... *** उनकी पैदाइश 24 नवम्बर 1952 को कराँची में हुई। ऊँचे खानदान में जन्मी परवीन को अपने वालिद से बेहद मोहब्बत थी। जनाब साकिब हुसैन शाकिर साहब खुद उस दौर के बड़े शायर थे..... उनकी मोहब्बत के चलते परवीन ने ताउम्र अपने नाम के आगे शाकिर लगाये रखा.....। इनके वालिद ने इन्हें उम्दा तालीम दी और पर्दे की भी कोई पाबन्दी नहीं थी। अंग्रेजी साहित्य में इन्होंने एम०ए० किया फिर पी०एच०डी० भी। नौ साल तक कॉलेज में पढ़ाया फिर सिविल सर्विसेज के लिए कोशिश की तो पहले ही दफ़े में मुक़ाम भी हासिल किया। परवीन की शायरी का उस समय वो जलवा था कि इम्तेहान का एक सवाल उनकी शायरी से ताल्लुक रखता था..... और परवीन मुस्कुराये बिना न रह सकीं। ** अपने शुरुआती दौर में उन्होंने "बीना" नाम से लिखना शुरू किया। शायरी की शुरूआती तालीम इन्होंने जनाब इर्क़ाफा अज़ीज़ साहब से ली। इसके बाद इन्होंने जनाब अहमद नदीम 'क़ासमी' साहब को अपना गुरु माना..... जिन्हें वो प्यार से 'अम्मू' कहती थीं। इनकी पहली नज़्म अख़बार "जंग" ने शाया की। ** कहते हैं जो जितनी बुलन्दियों की तरफ़ बढ़ता है उसके साथ वाले लोग पीछे छूटते जाते है .....। अपनी शायरी और करियर में परवीन मुक़ाम छूती जा रहीं थीं और ज़ाती ज़िन्दगी उनसे रूठती जा रही थी.....। उनकी शायरी में ये ख़लिश साफ दिखती है..... ** "ये मेरे जात की सबसे बड़ी तमन्ना थी काश कि वो मेरा होता मेरे नाम की तरह" *** इनके खालाज़ाद भाई से इनका निकाह हुआ..... पर जल्द ही मनमुटाव के चलते तलाक भी हो गया। एक बेटे मुराद की माँ भी बनी.....। अपनी किताबों में औरत के हर रूप को बख़ूबी से पेश किया है परवीन साहिबा ने। एक माशुक़ा, बीबी, माँ, नौकरीपेशा औरत, मशहूर लेकिन बदनाम औरत..... औरत का कोई भी पहलू इनकी कलम की नज़र से बच न सका.....। वो कहते हैं जो सबका प्यारा होता है वो ख़ुदा कभी प्यारा होता है। परवीन के साथ भी यही हुआ ..... 26 दिसम्बर 1994 में एक सड़क हादसे में महज़ 42 साल की उम्र में इनकी मौत हो गई। फैज़, फ़िराक़ गोरखपुरी, अहमद फ़राज़, क़तील शिफ़ाई जैसे शायरों के बीच चमकने वाली शायरा ने इतनी कम उम्र में ही दुनिया से कूच कर लिया.....। *** उनकी किताब "ख़ुशबू'' जो सन् 1976 में छपी थी जब वो महज़ 24 साल की थीं। *** "ख़ुशबू" के इन्तिसाब में परवीन साहिबा ने लिखा..... --- "जब हौले से चलती हुई हवा ने फूल को चूमा तो ख़ुशबू पैदा हुई।" *** किसी भी गज़ल या नज़्म में कभी भी, कहीं भी परवीन साहिबा औरत को आदमी के बराबर खड़ा नहीं करती बल्कि औरत "औरत" होकर अपना मुक़ाम हासिल करती नज़र आती है। ***** "बहुत रोया वो हमको याद करके हमारी ज़िन्दगी बरबाद करके * बदन मेरा छुआ था उसने लेकिन गया है रूह को आबाद करके" **** एक नज़्म 'मिसफिट' में वो औरत की पूरी ज़िन्दगी के हर किरदार को बयां कर देती हैं..... कि औरत हर किरदार जीती है लेकिन मिसफिट क़रार दी जाती है..... इस नज़्म की चन्द लाइनें.... **** "कभी-कभी मैं सोचती हूँ मुझ में लोगों को खुश करने का मत्का इतना कम क्यों है कुछ लफ़्ज़ों से, कुछ मेरे लहज़े से ख़फ़ा हैं पहले मेरी माँ मेरी मसरूफियत से नालां रहती थी अब यही गिला मुझसे मेरे बेटे को है (रिज़्क़ की अन्धी दौड़ में रिश्ते कितने पीछे रह जाते हैं) जबकि सूरते हाल तो ये है मेरा घर मेरे औरत होने की मज़बूरी का पूरा लुत्फ़ उठाता है" *** एक छोटी सी नज़्म 'ऐ'तिराफ़' में सारे ज़ज़्बात उड़ेल दिए हैं। बस पढ़कर उफ़्फ़्फ़ निकल जाती है..... *** "जाने कब तक तिरी तस्वीर निगाहों में रही हो गई रात तिरे अक्स को तकते-तकते मैंने फिर तैरे तसव्वुर के किसी लम्हे में तेरी तस्वीर पे लब रख दिए आहिस्ता से" ***** एक गज़ल में औरत के सब्र, इश्क़, वफ़ा, सहनशक्ति की मिसाल देखिये..... ** "कमाले-ज़ब्त को खुद भी तो आज़माऊँगी मैं अपने हाथ से उसकी दुल्हन सजाऊँगी ** सुपुर्द करके उसे चाँदनी के हाथों में मैं अपने घर के अँधेरों को लौट जाऊँगी ** वो एक रिश्ता-ए-बेनाम भी नहीं लेकिन मैं अब भी उसके इशारों पे सर झुकाऊँगी *** बिछा दिया था गुलाबों के साथ अपना वुज़ूद वो सो के उट्ठे तो ख़्वाबों की राख उठाऊँगी" *** नज़्म 'मशविरा' में दिया उनका मशविरा बहुत अपना सा लगता है..... लगता है यही कैफ़ियत तो है हमारी ..... ****, "दरुने गुफ़्तगू बामानी वक़्फे आने लग जाएँ तो बाक़ी गुफ़्तगू बेमानी हो जाती है सो, ऐ खुश सुखन मेरे! हमें अब ख़ामोशी पर ध्यान देना चाहिए अपनी! **** एक गज़ल के मतले में अपने महबूब को शिद्दत से याद करते हुए कहती हैं..... ** "अपनी तन्हाई मिरे नाम पे आबाद करे कौन होगा जो मुझे उसकी तरह याद करे" ** परवीन शाकिर किसी भी मक़ते में अपने नाम का ज़िक्र नहीं करती लेकिन एक गज़ल के मकते में उनके नाम का जिक्र है ..... गौर फरमायें *** "कोई सैफ़ू हो कि मीरा हो कि परवीन, उसे रास आता ही नहीं चाँद-नगर में रहना" *** दोस्तों उनकी हर एक गज़ल जो मेरी नज़रों से गुज़री है इतनी खूबसूरत है कि समझ नहीं आता किसे पेश करूँ किसे न करूँ..... एक गज़ल के दो शेर पेश हैं ..... *** "अनपरस्त है इतना कि बात से पहले वो उठ के बन्द मिरी हर किताब कर देगा ** मिरी तरह से कोई है जो ज़िन्दगी अपनी तुम्हारी याद के नाम इन्तिसाब कर देगा" *** गज़ल चाहे किसी भी बहर की हो ..... उन्होंने बड़ी खूबसूरती से अंजाम दिया। एक छोटी बहर की गज़ल पर गौर फरमायें ..... *** "तुझसे तो कोई गिला नहीं है किस्मत में मेरी सिला नहीं है ** बिछड़े तो न जाने हाल क्या हो जो शख़्स अभी मिला नहीं है" *** एक नज़्म 'गंगा से' में वो पाकिस्तान के एक शहर महरान का ज़िक्र करती हैं जो हरिद्वार जैसा ही बसा है और वो गंगा से आह्वान करती हैं कि वो अपना साया बनाये रखे तो दूसरी नज़्म 'सलमा कृष्ण' में वो कृष्ण के प्यार में रमी दिखती हैं। *** एक और गज़ल के दो शे'र पेश हैं..... *** "कू-ब-कू फ़ैल गई शनाशाई की उसने ख़ुशबू की तरह मेरी परिजाई की ** वो कहीं भी गया लौटा तो मेरे पास आया बस यही बात अच्छी मिरे हरजाई की" ***** मेरी पसन्द की एक नज़्म और है 'हमारे दरम्याँ ऐसा कोई रिश्ता नहीं था' की कुछ लाइनें पेश हैं ..... **** " हमारे दरम्याँ ऐसा कोई रिश्ता नहीं था तेरे शानों पे कोई छत नहीं थी मिरे जिम्मे कोई आँगन नहीं था मगर जब आज तूने रास्ता बदला तो कुछ ऐसा लगा मुझको कि जैसे तूने मुझसे बेवफाई की!" **** परवीन शाकिर की हर गज़ल, हर नज़्म, हर शेर मुझे बेहद पसन्द है लेकिन सबसे पसन्दीदा एक नज़्म है जो उन्होंने सारा शगुफ़्ता के लिए लिखी थी..... पेश है..... **** टमैटो कैचप --------------- हमारे यहाँ शेर कहने वाली औरत का शुमार अजायबात में होता है हर मर्द खुद को उसका मुख़ातिब समझता है और चूँकि हक़ीक़त में ऐसा नहीं होता इसलिए उसका दुश्मन हो जाता है! सारा ने इन मानों में दुश्मन कम बनाये इसलिए कि वो वज़ाहतें देने में यक़ीन नहीं रखती थी वो अदीब की जोरू बनने से क़ब्ल ही सबकी भाभी बन चुकी थी एक से एक गए गुज़रे लिखने वाले का दावा था कि वो उसके साथ सो चुकी है सुबह से शाम तक शहर भर के बेरोज़गार अदीब उसपर भिनभिनाते रहते जो काम-काज में लगे हुए थे वो भी सड़ी-बुसी फाइलों और बोसीदा बीवियों से ऊब कर इधर ही आते (बिजली के बिल, बच्चे की फ़ीस और बीवी की दवा से बेनियाज़ होकर इसलिए की ये मसाइल छोटे लोगों के सोचने के हैं) सारा दिन सारी शाम और रात के कुछ हिस्से तक अदब और फ़लसफ़े पर धुआँदार गुफ़्तगू होती भूख लगती तो चन्दा-वन्दा कर के नुक्कड़ के होटल से रोटी-छोले आ जाते अज़ीम दानिश्वर उससे चाय की फ़रमाइश करते हुए कहते तुम पाकिस्तान की अमृता प्रीतम हो बेवकूफ़ लड़की सच समझ लेती शायद इसलिए भी कि उसके नानो-नफ्क़ा के जिम्मेदार तो उसे हमेशा 'काफ़्का' की कॉफी पिलाते और 'नरोदा' के बिस्किट खिलाते इस रॉल से लिथड़े हुए Compliment के बहाने उसे रोटी तो मिलती रही लेकिन कब तक एक-न-एक दिन तो उसे भेड़ियों के चंगुल से निकलना ही था सारा ने जंगल ही छोड़ दिया! जब तक वो ज़िन्दा रही अदब के रसिया उसे भंभोरते रहे उनकी महफ़िलों में उसका नाम अब भी लज़ीज़ समझा जाता है बस ये की अब वो उस पर दाँत नहीं गाड़ सकते मरने के बाद उन्होंने उसे टमैटो कैचप नाम दिया है! *** परवीन शाकिर दरअसल अपने आप में एक ख़ुशबू हैं जो तब तक महकेगी जब तक दुनिया है। ख़ुद परवीन शाकिर के लफ़्ज़ों में ..... ****, "मर भी जाऊँ तो कहाँ लोग भुला देंगे लफ्ज़ मेरे होने की गवाही देंगे" *** तो आइये दोस्तों...परवीन शाकिर साहिबा के कलामों से आज उन्हें एक सादिक अक़ीदत पेश करे.... *** आभार.... शुक्रिया 🙏 ----------------------------------

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