Wednesday, September 01, 2021

एक उदासी अंदर कहीं विद्रोह घोषित कर देती है, * मेरे हर सजदे में नहीं जुड़ते है उसके हाथ आँखों में आँखें डाल पूछती है ,सारे प्रश्न जो कभी नहीं लाँघ पाये देहरी मेरी जुंबा की, * बेमानी सा लगता है उसके जागते उत्सव मनाना, * जैसे कटाक्ष में मुस्करा रहा हो कोई "क्या माँगने से मिलता है कभी कुछ" * भम्र में मैं समझती रहती हूँ हर सदा को नया शहतूत का पत्ता और बुनती रहती हूँ कुछ रेशमी ख्वाब , * जागती उदासी कभी विश्वास नहीं करती उसकी हँसी मुझे उदास रखती हैं....!!! सूफ़ी......

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