Tuesday, February 23, 2021

*वह कहता था,* *वह सुनती थी,* जारी था एक खेल कहने-सुनने का। खेल में थी दो पर्चियाँ। एक में लिखा था *‘कहो’*, एक में लिखा था *‘सुनो’*। अब यह नियति थी या महज़ संयोग? उसके हाथ लगती रही वही पर्ची जिस पर लिखा था *‘सुनो’*। वह सुनती रही। उसने सुने *आदेश*। उसने सुने *उपदेश*। *बन्दिशें*उसके लिए थीं। उसके लिए थीं *वर्जनाएँ*। वह जानती थी, *'कहना-सुनना'* नहीं हैं केवल क्रियाएं। राजा ने कहा, *'ज़हर पियो'* *वह मीरा हो गई।* ऋषि ने कहा, *'पत्थर बनो'* *वह अहिल्या हो गई।* प्रभु ने कहा, *'निकल जाओ'* *वह सीता हो गई।* चिता से निकली चीख, किन्हीं कानों ने नहीं सुनी। *वह सती हो गई।* घुटती रही उसकी फरियाद, अटके रहे शब्द, सिले रहे होंठ, रुन्धा रहा गला। उसके हाथ *कभी नहीं लगी वह पर्ची,* जिस पर लिखा था, *‘कहो'*। *"अमृता प्रीतम"*

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