Sufi's Visual Poetry
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समर्पण.....
हे कृष्ण
देख, आज आई हूँ
तेरे विचरण वन में
स्वयं को पूर्णरूपेण लेकर
सभी आवरणों को तज कर
सांसारिक शर्म को हटा कर,
आत्ममंथन स्वरूपी
सरोवर में स्नान करने ,
तू वहीं से
छुप कर देख
मैं उतारूँगी
एक एक करके
वस्त्रों सरीखे
तन को,मन को
कर्म को, इच्छा को
दृष्टि को , चक्षु को
बुद्धि को, ज्ञान को
स्थूल को, सूक्ष्म को
मोह को , माया को,
एक एक करके
तहा कर, रख दूँगी
सब को किनारे पर !!!
नयन मूँद करबद्ध
खींच कर उतारूँगी
आभूषण सरीखे
ये ओढ़े हुए
बिम्ब , प्रतिबिम्ब
द्वेष ,राग
धरातल ,मार्ग
पक्ष , पर्याय
भ्रम , जाल
समीकरण ,भाव
फेंक दूँगी
इन को भी
ईद गिर्द, यहीं कहीं....
और फिर
कूद पड़ूँगी
आत्मशोधन के
इस अमृत जल में ...!!!
तब तुम ,
चुपके से आकर
आदत से हो मजबूर
एक एक वस्त्र आभूषण को
उठा कर ,छिपा देना कहीं
दूर बहुत दूर
और फिर से चढ़ जाना
किसी कदम्ब डार पर,
सुनना मेरा गीत
" तेरा तुझ को अर्पण "
मेरा क्या....मैं तो
हो जाऊँगी रिक्त
समर्पित शून्य सी,
बना कर खोखली,
बाँस के टुकड़े सी,
आवरण में छेद कर
बाँसुरी सा धर लेना....
फूँक देना कुछ प्राण
बना कर मुझे एक
सुरीली सी राग,
अब तक की भक्ति को
स्वीकारना जनार्दन
एक बार
तान झन्कृत कर
अपना बना लेना,
मनमोहना,
मुझे भी
जीवन के कुरुक्षेत्र की
गीता सीखा जाना...!!!
सूफ़ी..............

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